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महात्मा गांधी 1915 के हरिद्वार कुंभ में पहुंचे। यहां उन्होंने संत समुदाय से मुलाकात की थी।
ब्रिटिश राज में कुंभ मेला स्वतंत्रता सेनानियों की मुलाकातों और लोगों को जागरूक करने का प्रभावी माध्यम था। प्रयाग कुंभ मेले में तीर्थ पुरोहितों (प्रयागवाल) के निशान की तर्ज पर क्रांतिकारी भी अपने संदेश देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग करते थे। इससे साथियों को एक जगह जुटने का खुफिया संदेश दिया जाता था।
हालांकि इनका लिखित दस्तावेज नहीं है। प्रयाग तीर्थ पुरोहितों के दस्तावेज बताते हैं कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई 1857 की क्रांति की रूपरेखा बनाने से पहले संगम नगरी आई थीं। वे एक तीर्थ पुरोहित के यहां ठहरीं।
यह अकारण नहीं था कि अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर में नागा साधु बाबा गंगादास की बड़ी शाला पहुंचीं। तब 2 हजार नागा साधुओं ने अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया और 745 साधु शहीद हुए।
रानी लक्ष्मीबाई 1857 की क्रांति की तैयारी के लिए संगम नगरी आई थीं।
विद्रोह में शामिल हुए लोगों पर बम फेंके गए जून 1857 में जब पहली क्रांति का संघर्ष चरम पर था, तब बड़ी संख्या में प्रयागवाल भी विद्रोह में शामिल हुए। इसके बाद इलाहाबाद पहुंचे कर्नल नील ने 15 जून, 1857 को संगम के नजदीक उन इलाकों में बम बरसवाए, जहां प्रयागवालों की बस्ती थी और माघ मेला का क्षेत्र था।
1915 में हरिद्वार कुंभ के दौरान अंग्रेज गंगा पर बांध बनाने लगे। आंदोलन बढ़ा तो फैसला वापस लेना पड़ा।
बापू ने 1918 में संगम में डुबकी लगाई
- अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर महात्मा गांधी 1918 में प्रयाग कुंभ पहुंचे और स्नान किया। अंग्रेज अफसरों ने खुफिया रिपोर्ट में लिखा- गांधी लगातार लोगों से मिलते रहे। बापू ने इस यात्रा का जिक्र 10 फरवरी 1921 की फैजाबाद जनसभा में भी किया।
- आलम यह था कि 1918 के कुंभ में भीड़ रोकने के लिए रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष आर डब्ल्यू गिलन ने रेलवे टिकट बिक्री पर भी रोक लगा दी थी। आंदोलनों और क्रांतिकारियों से परेशान अंग्रेज सरकार ने 1930 में प्रयागराज का कुंभ डरते-डरते कराया।
- दरअसल, गांधी के नमक आंदोलन शुरू होने की सुगबुगाहट से अंग्रेज ज्यादा सतर्क हो गए थे। इसके बाद प्रयाग में अगला कुंभ 1942 में हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन के चरम पर होने से अंग्रेजों ने 1942 के कुंभ का आधिकारिक ऐलान नहीं किया। रेल और बस के टिकटों की बिक्री रोक दी गई।
- खबर फैलाई गई कि विश्वयुद्ध के चलते जापान मेले पर बम गिरा सकता है। इसके बावजूद लाखों तीर्थयात्री पहुंचे थे।
अंग्रेजों को डर था कि महात्मा गांधी के कुंभ में आने से वहां भीड़ जुटेगी। इसलिए अंग्रेज सरकार ने रेल टिकट की बिक्री पर रोक लगा दी।
वायसराय ने पूछा-इतने लोगों को बुलाने का खर्च कितना, जवाब-2 पैसे महामना मदनमोहन मालवीय के कहने पर 1942 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो प्रयाग कुंभ आए। अपार जन-समूह देख पूछा- ‘इतने लोगों को बुलाने में बहुत खर्च हुआ होगा?’ महामना ने कहा, ‘सिर्फ दो पैसे खर्च हुए।’ लिनलिथगो ने कहा, ‘पंडिज जी, मजाक तो नहीं कर रहे?’ इस पर महामना ने जेब से पंचांग निकालते हुए कहा, ‘यह दो पैसे का है। इससे कुंभ और स्नान पर्व पता चल जाते हैं। लोग बिना किसी निमंत्रण के चले आते हैं।’
1946 से भूले-बिसरे शिविर सन् 1946 के माघ मेले में 18 वर्ष के राजाराम तिवारी ने भूले-भटके लोगों को परिजनों तक पहुंचाने के लिए ‘भारत सेवा दल’ संस्था बनाकर काम शुरू किया। उनका निधन 2016 में हुआ और वे हर साल इस काम को करते रहे। उनके निधन के बाद उनके परिजन इस संस्था का संचालन कर रहे हैं।
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