पटना. हरियाणा की नायब सैनी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय को लागू कर दिया है जो कोटे के अंदर कोटे का प्रावधान करता है. नई सरकार बनने के बाद सीएम सैनी ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हमारी कैबिनेट ने सम्मान किया है प्रदेश में इस फैसले को लागू करने का फैसला लिया है और इस नई नीति से जरूरतमंदों तक लाभ पहुंचेगा. बता दें कि सैनी सरकार ने यह निर्णय बीते शुक्रवार को लिया था और इस फैसले को लेकर विरोध और समर्थन के स्वर एक साथ सुनाई दे रहे हैं. इसको लेकर विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जातियों के उप वर्गीकरण को लेकर एक ओर जहां राजनीति शुरू हो गई है, वहीं सामाजिक स्तर पर इस पर लगातार चर्चा हो रही है. सवाल यह है कि क्या इसका असर राज्यों की राजनीति पर भी पड़ने जा रहा है? विशेषकर बिहार जैसे राज्य जहां जातिवादी राजनीति अत्यधिक हावी रहती है वहां इसका कैसा असर दिखेगा?
हम इन प्रशनों का जवाब जानेंगे लेकिन, इससे पहले बता दें कि बीते 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की संविधान पीठ ने अनुसूचित जातियों के उप वर्गीकरण यानी कोटे के अंदर कोटे को स्वीकृति प्रदान की थी. संविधान पीठ ने ये फैसला दिया था कि अनुसूचित जातियों के भीतर अधिक पिछड़े समूह के लिए अलग से कोटा प्रदान किया जा सके. हालांकि, तब भी इस फैसले का विरोध और समर्थन हो रहा था और अब जब सैनी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ चुकी है तो एक बार फिर मुखर तौर पर विरोध और समर्थन के स्वर सामने आ रहे हैं.
मायावती-अखिलेश, तेजर्वी-चिराग का विरोध
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने इस फैसले विरोध किया है तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश सिंह ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी आपत्ति जताई है. वहीं, बिहार की दलित जातियों के नेता माने जाने वाले चिराग पासवान इसके खिलाफ हैं तो पिछड़े वर्ग के नेता कहे जाने वाले तेजस्वी यादव ने भी इसका खुलकर विरोध किया है. वहीं, बिहार में महादलित समुदाय के नेता और केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी और महाराष्ट्र के दलित नेता रामदास अठावले जैसे नेता सुप्रीम कोर्ट की इस मांग के समर्थन में खड़े हैं. अब सवाल उठ रहा है कि क्या इसका बिहार पर भी कुछ असर पड़ना है तो यह बिहार पर कैसे असर पड़ सकता है.
रिजर्वेशन प्रावधान की तकनीकी बातें भी समझिये
सबसे पहले समझते हैं कि इस फैसले की तकनीकी बात क्या है. अधिवक्ता क्रांति कुमार ने बताया कि कुल 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. इसके अंदर अभी एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण है. इस 22.5% के आरक्षण में ही राज्य एससी और एसटी के उन कमजोर वर्गों का कोटा तय कर सकेंगे, जिनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इसको ऐसे समझें कि अगर दलित वर्ग में ही कोई खास जाति अगर आरक्षण का लाभ अधिक उठा चुकी है तो दूसरी जातियों के लिए इसी श्रेणी में कोटा तय किया जाए ताकि वह भी अपने ही समुदाय (दलित वर्ग) के बीच समान अवसर पा सकें.
आखिर सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर का सार क्या है?
वहीं, पटना के अनुग्रह नारायण समाजिक अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर डॉ. अजय कुमार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मतलब यह निकलता है कि एससी, एसटी वर्ग को मिलने वाले आरक्षण में उसी वर्ग के आरक्षण का लाभ पाने से वंचित रह गए वर्गों को लाभ देने के लिए उपवर्गीकरण किया जा सकता है. उदाहरण के लिए एससी वर्ग की जो जातियां ज्यादा पिछड़ी रह गई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया है, उनका सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, उनको उपवर्गीकरण के जरिए उसी कोटे में प्राथमिकता दी जा सकती है.
नीतीश कुमार तो कब के कर चुके हैं ये पहल
बता दें कि बिहार की आबादी में दलितों की संख्या 15% से अधिक है, जबकि राज्य में लगभग 10% हैं महादलित आबादी कही जाती है. इसमें वंचित वर्गों की स्थिति देखते हुए वर्ष 2007 में बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों में भी सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियों के लिए ‘महादलित’ कैटेगरी बनाई थी. हालांकि, यह कोई सांविधानिक प्रावधान नहीं था, लेकिन दलितों में सब कटेगरी बनाकर नीतीश सरकार ने इनके लिए सरकारी योजनाएं लाईं. इस योजना का लाभ समाज के अंतिम पायदान पर खड़े समाज को मिला भी. नीतीश सरकार ने इसके बाद वर्ष 2010 में आवास, पढ़ाई के लिए लोन, स्कूली पोशाक देने की योजनाओं का लाभ इन जातियों को मिलने लगा.
बदली राजनीति तो बदल गई नीतीश सरकार की पॉलिसी
हालांकि, बाद के दौर में यहां कोई दलित और महादलित कटेगरी नहीं है क्यों कि आज बिहार में सभी दलित जातियों को महादलित की कैटेगरी में डाला जा चुका है. बता दें कि वर्ष 2018 में पासवानों को भी महादलित का दर्जा दे दिया गया है. हालांकि, अब कोटे के अंदर कोटा वाली बात इसलिए चर्चा में है कि एक बार फिर इसको लेकर दलित कटेगरी में सबकटेगरी बनाने की मांग लगातार उठ रही है. विशेषकर बिहार में मांझी, चर्मकार और वाल्मिकी समाज के लोग सबकटेगरी की मांग के साथ खड़े हो गए हैं. वहीं, दलित कटेगरी की सबसे सबल जाति पासवान समुदाय को लोग मानते हैं और चिराग पासवान इसी जाति से आते हैं. ऐसे में मांझी और चिराग के स्वर अलग अलग सुनाई देते हैं.
कोटे के अंदर कोटे को इस उदाहरण से समझ सकते हैं
वहीं, दूसरी ओर पटना विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर और समाजिक मामलों के जानकार अखिलेश कुमार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बहुत ही सराहनीय है और जो भी राजनीतिक दल या जाति वर्ग इसका विरोध कर रहे हैं उन्होंने इस को पूरे परिप्रेक्ष्य में अध्ययन नहीं किया है. इसको ऐसे देखना चाहिए कि, मान लीजिए कि एक पिता के चार संतान हैं और एक अपने पांव पर खड़ा हो चुका है, तो बाकी जो तीन हैं, क्या पिता के पास रखे 5 लाख रुपये में उन चारों में बंटना चाहिए या फिर यह शेष तीन जो अभी अपने पांव पर खड़े नहीं हैं, उनको देना चाहिए. इसको अगर आप इस एंगल से समझेंगे तो निश्चित तौर पर आपको लगेगा कि सामाजिक उद्देश्य इस फैसले से पूरा होता है.
‘किस जाति के लोग कितना लाभ ले रहे, इसका रर्वे हो’
अखिलेश कुमार कहते हैं कि इस पूरे मामले का सर्वे भी होना चाहिए कि कौन लाभ ले पा रहा है. अगर रामविलास पासवान आरक्षित कोटे से सांसद बने तो उनके पुत्र चिराग पासवान भी आरक्षित कोटे पर सांसद बन गए, लेकिन उसी सीट पर उसी वर्ग के किसी दूसरे को अवसर नहीं मिला. ठीक यही केस केस जीतन राम मांझी पर भी लागू होता है. वह महादलित समुदाय से भी हैं, बावजूद इसके वह सांसद बन गए तो क्या उन्हें के बेटे को उसी रिजर्वेशन का लाभ लेते हुए सांसद बनाना चाहिए या किसी नये चेहरे को बनाना चाहिए?
ओबीसी आरक्षण में पहले से लागू है कोटा में कोटा
अखिलेश कुमार कहते हैं कि अगर इसी को आप ओबीसी कोटे में देखेंगे तो वहां कोटा के अंदर कोटा पहले से लागू है. तब तो इसका कोई विरोध नहीं हुआ था. यहां एनेक्सर वन और एनेक्सचर टू का रिजर्वेशन प्रावधान पहले से है. यह भी तो कोटा के अंदर कोटा की ही बात है. आखिर यह वहां जब लागू हो सकता है तो फिर अनुसूचित जाति के मामले में क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की होनी चाहिये सराहना
अखिलेश कुमार कहते हैं कि कई लोग तर्क देते हैं कि इस रिजर्वेशन का उद्देश्य सामाजिक था न कि आर्थिक… तो अगर यह कोटा के अंदर कोटा को देखा जाए तो इसमें सामाजिक उद्देश्य भी कहीं से भी डाइवर्ट नहीं होता है. सिर्फ और सिर्फ यह है कि आप जिनको अत्यधिक जरूरत है आप उनके हिस्से उनका हक दे रहे हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय बहुत सराहणीय है और हरियाणा की सैनी सरकार का फैसला भी काबिले तारीफ है.
गहराई से अध्ययन करेंगे तो समझेंगे राजनेता भी
अखिलेश कुमार कहते हैं कि रही बात ओबीसी समुदाय में दबंग जातियों के लोग इसका विरोध क्यों करते हैं, आखिर कोटे के अंदर कोट क्यों नहीं चाहिए? यह एक राजनीति मामला है, लेकिन उन्होंने इसका सही तरीके से अध्ययन नहीं किया है. आप देखेंगे कि यादवों की 14% आबादी है और सबसे अधिक है, लेकिन रिजर्वेशन का लाभ लेने के मामले में वह पांचवें या छठे पायदान पर होगा. वहीं, कुर्मी, कुशवाहा और वनिक (व्यवसायी) समाज के जो लोग हैं उनको रिजर्वेशन का अत्यधिक लाभ मिला है. अगर तेजस्वी यादव या अखिलेश यादव जैसे नेता इसका अध्ययन कर लेंगे तो कोटे के अंदर कोटे के प्रावधान का समर्थन करेंगे न कि विरोध करेंगे.
Tags: Bihar News, Caste Reservation, Supreme court of india
FIRST PUBLISHED : October 20, 2024, 14:11 IST
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