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– फोटो : प्रतीकात्मक

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पर्यावरण और इंसान का रिश्ता नजदीकी है। हवा साफ रखने के साथ सक्रिय और क्रियाशील परिवेश इंसान की सेहत के लिए फायदेमंद साबित होता है। इसकी कमजोरी शहर के लोगों पर भारी पड़ती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का प्रोटोकाॅल बताता है कि इंसानों की 60 फीसदी बीमारियां जूनोटिक्स (जंगली जानवरों से इंसानों में आने वाली) हैं। ईको सिस्टम में गड़बड़ी इसकी बड़ी वजह है।

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पर्यावरणविदों और वन्य जीव विशेषज्ञों के मुताबिक, सामान्य अवस्था में कोविड सरीखे नुकसानदेह वायरस जंगली जानवरों में पलते हैं। ऐसे में अलग-अलग प्रजातियों के पेड़-पौधों से भरा ईको सिस्टम वायरस की मारक क्षमता को कमजोर कर देता है। वह जंगल में पैदा होकर वहीं पर खत्म हो जाता है। इससे वायरस के इंसानों तक पहुंचने की गुंजाइश नहीं बचती, लेकिन मौजूदा समय में जंगलों की क्रियाशीलता कम होती जा रही है। इससे वायरस जंगल से इंसानी बस्तियों की तरफ की रुख कर रहा है। इसका असर महामारी के तौर पर सामने आता है।

दिल्ली-एनसीआर सरीखे शहरी क्षेत्रों का ईको सिस्टम इस वक्त न तो ज्यादा सक्रिय है और न ही जटिल। कम प्रजातियों के पेड़-पौधों के साथ यह बेहद सामान्य है। इससे वायरस के कमजोर पड़ने की संभावना सीमित है। दिल्ली राज्य वन रिपोर्ट (आईएसएफआर) बताती है कि 1993 के 1.48 फीसदी से बढ़कर 2021 में वन क्षेत्र 23.06 फीसदी हो गया है। इसके बावजूद अलग-अलग इलाकों में बड़ा फर्क है। सबसे ज्यादा नई दिल्ली का हरित क्षेत्र 47.1 फीसदी और उत्तर पश्चिमी दिल्ली में बमुश्किल चार फीसदी है। विशेषज्ञ बताते हैं कि शहर का 33 फीसदी वन क्षेत्र होना चाहिए। दिल्ली अभी भी इस मानक को पूरा नहीं कर रही है। साथ में इसके क्षेत्रवार वितरण में जमीन आसमान का फर्क है। खास बात यह कि जिन इलाकों का हरित क्षेत्र दहाई में नहीं है, वहां की बसावट बेहद सघन है। इससे हवा-पानी तो खराब हो रहा है, वायरस जनित रोग का खतरा भी बढ़ रहा है। नियोजकों का इस दिशा में ध्यान जाना बेहद जरूरी है।

किसी शहर में 33 फीसदी वन क्षेत्र होना चाहिए। दिल्ली में वन क्षेत्र अभी भी मानक से दस फीसदी कम है। वहीं, इसका वितरण बहुत असमान है। इसका असर वन क्षेत्रों की क्रियाशीलता पर पड़ता है। दिल्ली में डीडीए के सात जैव विविधता पार्क बेहतर परिवेश मुहैया करवा रहे हैं। इसकी नजीर पेश कर रहे हैं। स्वस्थ और मजबूत जैव विविधता वाले यह क्षेत्र रोगजनक वायरस को अपने में समेटे रखते हैं। 

-डॉ. फैयाज खुदसर, वन्यजीव विशेषज्ञ

कहां कितनी हरियाली

  • नई दिल्ली: 47.1 फीसदी
  • दक्षिण दिल्ली: 34.3 फीसदी
  • सेंट्रल दिल्ली: 23.8 फीसदी
  • दक्षिण पश्चिम दिल्ली: 12.3 फीसदी
  • उत्तरी दिल्ली: 7.7 फीसदी
  • उत्तर पूर्वी दिल्ली: 6.7 फीसदी
  • पूर्वी दिल्ली: 6.1 फीसदी
  • पश्चिमी दिल्ली: 5.3 फीसदी
  • उत्तर पश्चिम दिल्ली: 4 फीसदी

प्रमुख बीमारियां, जो जंगल से आईं

  • अफ्रीका में एचआईवी का वायरस चिम्पांजी से इंसानों में पहुंचा
  • अफ्रीका में ही इबोला वायरस चमगादड़ से इंसानों में आया है
  • मलयेशिया में निपाह वायरस सुअर से इंसानों में आया
  • चीन में कोरोना वायरस चमगादड़ से पैंगोलीन व पैंगोलीन से इंसानों में आया है

(विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध रिपोर्ट से)

बढ़ता प्रदूषण पेड़-पौधों पर भी पड़ रहा भारी

हरियाली अमूमन हवा को साफ रखने में मददगार साबित होती है। इस सामान्य प्रक्रिया के उलट अगर स्थान विशेष पर प्रदूषण मानक से ज्यादा होता है तो वह पेड़-पौधों के लिए ही नुकसानदेह साबित होता है। दो से तीन महीने तक हवा में पीएम 10 व पीएम 2.5 की मात्रा ज्यादा होने पर पौधों की विकास दर 30-50 फीसदी तक गिर जाती है। वहीं, वातावरण से गैसों के आदान-प्रदान में भी बाधा आती है। इससे वनस्पतियों के प्रदूषण सोखने की क्षमता गिरती है। सामान्य अवस्था में जो पौधा जितना ज्यादा हवा को साफ करता है, उसमें उतनी ही गिरावट आती है। वनस्पति विज्ञानी एस. चेलैया के मुताबिक, इंसानों की तरह वनस्पतियों पर भी प्रदूषण का असर पड़ रहा है। सर्दियों में यहां की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, पीपल सरीखे पेड़ों तक से यह सूखकर गिरती हैं, यह घने प्रदूषण का ही नतीजा है। लंबे दौर का प्रदूषण पेड़-पौधों को कुपोषित कर रहा है।

इसलिए मनाया जाता है दिवस

पूरी दुनिया विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस 26 सितंबर को मनाती है। असल में हमारी बिगड़ती सेहत का सबसे बड़ा कारण है प्रकृति के प्रति लापरवाही। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पर्यावरण को बचाना बहुत जरूरी है। लोगों को इसी महत्व को समझाने और जागरूकता फैलाने की लिए इसे मनाया जाता है। इसकी शुरुआत अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण स्वास्थ्य महासंघ ने 2011 में की थी।

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