हस्तिनापुर स्थित द्रोपदेश्वर मंदिर को महाभारत काल से जोड़ा जाता है, जहां भीष्म पितामह ध्यान करते थे. यहां स्वयंभू शिवलिंग, द्रोपदी की मूर्ति और बूढ़ी गंगा की धारा श्रद्धालुओं को आज भी आध्यात्मिक अनुभव कराती है.
- द्रोपदेश्वर मंदिर महाभारत काल से जुड़ा है.
- मंदिर में 7200 साल पुराना स्वयंभू शिवलिंग है.
- हर शनिवार को मंदिर में भंडारे का आयोजन होता है.
मेरठ- जब जीवन में संकट आता है तो व्यक्ति अक्सर ईश्वर और विशेष रूप से मां को याद करता है. यही आस्था और शांति की खोज हस्तिनापुर के द्रोपदेश्वर मंदिर में भी देखने को मिलती है. कहा जाता है कि जब भी भीष्म पितामह किसी उलझन में होते थे, वे मां गंगा का ध्यान करते थे और मां गंगा स्वयं उनसे मिलने आती थी.
मेरठ से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित हस्तिनापुर, महाभारत कालीन संस्कृति और इतिहास का जीवंत प्रतीक है. शोभित विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर और हस्तिनापुर एक्सपर्ट प्रियंक भारती का कहना है कि इस पावन भूमि के हर कण में महाभारत की गूंज सुनाई देती है. द्रोपदेश्वर मंदिर के पास स्थित ध्यान केंद्र को भीष्म पितामह की साधना स्थली माना जाता है, जहां वे मां गंगा से संवाद करते थे.
बूढ़ी गंगा की अविरल धारा है साक्षी
प्रियंक भारती बताते हैं कि द्रोपदेश्वर मंदिर के निकट आज भी बूढ़ी गंगा की पवित्र धारा बहती है, जिसे दिव्य और चमत्कारी माना जाता है. यह धारा मानो आज भी मां गंगा की उपस्थिति का प्रतीक है, जो हजारों वर्षों पुरानी कथाओं को जीवंत बनाती है.
मंदिर में स्थित शिवलिंग को स्वयंभू माना जाता है और इसकी प्राचीनता लगभग 7200 वर्षों की बताई जाती है. जंगल के बीच बसे इस मंदिर में भक्तों की आस्था कम नहीं होती. हर शनिवार को यहां भंडारे का आयोजन किया जाता है, जिसमें स्थानीय श्रद्धालु ही नहीं, दूर-दराज से लोग हिस्सा लेते हैं.
द्रोपदी की विशेष पूजा
इस मंदिर में द्रोपदी की एक दुर्लभ मूर्ति भी स्थापित है, जो मंदिर को और अधिक विशेष बनाती है. हस्तिनापुर में इस तरह के कई मंदिर हैं, जो महाभारत कालीन पात्रों और घटनाओं से जुड़े हुए हैं और जिनसे जुड़ी मान्यताएं आज भी लोगों की श्रद्धा और आस्था का आधार हैं.
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