अखलाक मुहम्मद खान का जन्म
एक नया रंग
हालांकि, शहरयार ने 1960 के दशक में ही शायरी शुरू कर दी थी. वह जल्द ही अपनी अनूठी शैली के लिए पहचाने गए. उनकी शायरी में मौजूद उदासी और विडंबना का मिश्रण उस समय की उर्दू शायरी में एक नया रंग लेकर आया. मशहूर शायर खलील-उर-रहमान आजमी के सान्निध्य में उनकी शायरी निखरी और उन्होंने ‘शहरयार’ तखल्लुस अपनाया. इसी दौरान उनकी पहली किताब ‘इस्म-ए-आजम’ (1965) आई, लेकिन ‘ख्वाब का दर बंद है’ (1987) ने उन्हें पहचान दिलाई, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला. शहरयार, फिराक गोरखपुरी, कुर्रतुलऐन हैदर और अली सरदार जाफरी के बाद चौथे ऐसे उर्दू साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ सम्मान भी मिला.
यही नहीं, शहरयार ने हिंदी सिनेमा में भी अपनी छाप छोड़ी. उन्होंने साल 1981 में आई फिल्म ‘उमराव जान’ के गीत ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं’, ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिए’, ‘जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने’ ने उन्हें घर-घर में पहचान दिलाई.
अंजुमन जैसी फिल्मों के लिए लिखे गीत
खूबसूरती से बयान करता
‘हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यूं है. अब तो हर वक्त यही बात सताती है हमें’ यह शेर जिंदगी की अधूरी ख्वाहिशों को बहुत ही खूबसूरती से बयान करता है.
कैंसर के कारण दुनिया को अलविदा कह दिया
13 फरवरी 2012 ये वो तारीख थी, जब उर्दू के महानतम शायरों में से एक शहरयार ने अलीगढ़ में कैंसर के कारण दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन, उनकी शायरी आज भी जिंदा है और लोगों को आज भी प्रेरित करती है.
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