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नई दिल्ली: ‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है. इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है.’ इन पंक्तियों में छुपी गहरी संवेदना और आधुनिक जीवन की जटिलताओं को उकेरने की कला अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’ की शायरी की पहचान है.

आधुनिक युग की उर्दू शायरी के इस सितारे ने अपनी सादगी, गहन विचारों और भावनाओं की सहजता से न केवल उर्दू अदब को समृद्ध किया, बल्कि हिंदी सिनेमा के गीतों के माध्यम से लाखों दिलों को भी छुआ. शहरयार की शायरी जिंदगी के दुख-दर्द, प्रेम और मानवीय संवेदनाओं को इस तरह पेश करती है कि वह हर किसी के दिल में उतर जाती है. उनकी कलम का जादू जटिल भावनाओं को सरल शब्दों में ढाल देता था. ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित शहरयार उर्दू शायरी के उन रचनाकारों में से हैं, जिन्होंने आधुनिकता और परंपरा का अनूठा संगम रचा.

अखलाक मुहम्मद खान का जन्म

‘शहरयार’ के नाम से पहचान पाने वाले अखलाक मुहम्मद खान का जन्म 16 जून 1936 को उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के आंवला में एक मुस्लिम परिवार में हुआ. उनके पिता अबू मुहम्मद खान एक पुलिस अधिकारी थे और वे चाहते थे कि उनका बेटा भी उनकी तरह पुलिस अफसर बने. लेकिन शहरयार का रुझान साहित्य और शायरी की ओर था. शुरुआती शिक्षा हरदोई में पूरी करने के बाद वह 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) चले गए, जहां उन्होंने 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की.

एक नया रंग

हालांकि, शहरयार ने 1960 के दशक में ही शायरी शुरू कर दी थी. वह जल्द ही अपनी अनूठी शैली के लिए पहचाने गए. उनकी शायरी में मौजूद उदासी और विडंबना का मिश्रण उस समय की उर्दू शायरी में एक नया रंग लेकर आया. मशहूर शायर खलील-उर-रहमान आजमी के सान्निध्य में उनकी शायरी निखरी और उन्होंने ‘शहरयार’ तखल्लुस अपनाया. इसी दौरान उनकी पहली किताब ‘इस्म-ए-आजम’ (1965) आई, लेकिन ‘ख्वाब का दर बंद है’ (1987) ने उन्हें पहचान दिलाई, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला. शहरयार, फिराक गोरखपुरी, कुर्रतुलऐन हैदर और अली सरदार जाफरी के बाद चौथे ऐसे उर्दू साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ सम्मान भी मिला.

घर-घर में पहचान दिलाई

यही नहीं, शहरयार ने हिंदी सिनेमा में भी अपनी छाप छोड़ी. उन्होंने साल 1981 में आई फिल्म ‘उमराव जान’ के गीत ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं’, ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिए’, ‘जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने’ ने उन्हें घर-घर में पहचान दिलाई.

अंजुमन जैसी फिल्मों के लिए लिखे गीत

इसके अलावा, गमन (1978) और अंजुमन जैसी फिल्मों के लिए लिखे उनके गीतों ने उनकी संवेदनशीलता और शब्दों की सुंदरता को दर्शाया. हालांकि, शहरयार खुद को फिल्मी शायर नहीं मानते थे. उन्होंने फिल्मी गीत अपने निर्देशक दोस्त मुजफ्फर अली के कहने पर लिखे थे. फिल्मों में गीत लिखने के साथ-साथ शहरयार ने उर्दू शायरी के पारंपरिक रंग को बरकरार रखते हुए आधुनिक जीवन की समस्याओं, जैसे अकेलापन, तनाव और सामाजिक बदलाव को अपनी शायरी में जगह दी. उनकी शायरी में प्रेम की मासूमियत और दुख की गहराई एक साथ मिलती है.

खूबसूरती से बयान करता

‘हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यूं है. अब तो हर वक्त यही बात सताती है हमें’ यह शेर जिंदगी की अधूरी ख्वाहिशों को बहुत ही खूबसूरती से बयान करता है.

कैंसर के कारण दुनिया को अलविदा कह दिया

13 फरवरी 2012 ये वो तारीख थी, जब उर्दू के महानतम शायरों में से एक शहरयार ने अलीगढ़ में कैंसर के कारण दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन, उनकी शायरी आज भी जिंदा है और लोगों को आज भी प्रेरित करती है.

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