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-उत्तराखंड की संस्कृति की पहचान है पांडव नृत्य: पं. राजकुमार तिवारी
-पांडव नृत्य असत्य पर सत्य की जीत का द्योतक है: नरेन्द्र चौधरी

उदय भूमि
रुद्रप्रयाग। श्री केदारनाथ धाम के शीतकालीन गद्दी स्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ के समीप चुन्नी गांव में चल रहे पांडव नृत्य में दुर्योधन वध के साथ लीला का मंगलवार को भव्य तरीके से समापन हो गया। उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है और यदि बात केदारघाटी की की जाए तो इस घाटी में हर वर्ष कहीं न कहीं पौराणिक पांडव नृत्य का आयोजन होता है। वहीं चुन्नी गांव में यह पौराणिक पांडव नृत्य 34 साल बाद किया जा रहा है। पांडव नृत्य कमेटी के अध्यक्ष बचन सिंह रावत कहते हैं पांडव नृत्य हमारी पौराणिक और धार्मिक प्रतीकों में एक है। पाण्डव नृत्य मे अनेक आध्यात्मिक व पौराणिक परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है। दुर्योधन वध व पांडवों के अस्त्र- शस्त्र विसर्जित के साथ पाण्डव नृत्य का समापन होता है।

श्री केदार सभा के अध्यक्ष पं राजकुमार तिवारी ने बताया जब महाभारत युद्ध के पश्चात शेष बचे कृपाचार्य, कृतवर्मा एवं अश्वत्थामा रणक्षेत्र से अलग हो जाते है। अंत में बचा दुर्योधन हताश होकर अपनी पत्नी भानुमति, माता गांधारी एवं पिता धृतराष्ट से बचने का उपाय पूछता है। जिस पर माता गांधारी दुर्योधन से गंगा स्नान के पश्चात नग्न अवस्था में उनके सम्मुख आने के लिए कहती है। दुर्योधन ऐसा ही करता है, लेकिन रास्ते में भगवान श्रीकृष्ण उसे मिलते है, और दुर्योधन से कहते है कि नग्न अवस्था में तुम अपने मां के पास कैसे जाओगे। दुर्योधन अपनी जंघाओं को केले के पत्तों से ढकने के बाद अपनी माता के सम्मुख खड़ा हो जाता है। माता गांधारी की नजर जब दुर्योधन पर पड़ती है तो जंघाओं को छोड़कर उसका सारा शरीर बज्र का हो जाता है। इसके बाद वह भीम युद्ध करता है। श्रीकृष्ण का इशारा पाकर भीम दुर्योधन की जंघाओं पर प्रहार कर उसे मार डालता है।

मान्यता है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडव अपने पापों के पश्चाताप के लिए स्वर्ग की यात्रा पर निकले। पांडव मंदाकिनी नदी के किनारे से होते हुए केदारनाथ पहुंचे, जिन स्थानों से वे गुजरे और जहां विश्राम किया वहां आज भी पांडव लीला होती है। यह परंपरा सदियों से जारी है। स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण ने पांडव अपने अस्त्र-शस्त्रों को त्यागने के आदेश दिए थे। इसके बाद वे मोक्ष के लिए स्वर्गारोहिणी की यात्रा पर निकले थे। इस दौरान वह जिन-जिन जगहों से होते हुए केदारनाथ गए, उन जगहों पर विशेष रूप से पांडव नृत्य का आयोजन होता है। वहीं पांडव नृत्य कार्यक्रम में रविदास अखाड़ा के राष्ट्रीय प्रवक्ता नरेंद्र चौधरी ने भी पहुंचकर देवभूमि में आयोजित कार्यक्रम का अनोखा मंचन देखा। उन्होंने कहा इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों से नई पीढ़ी को भी अपनी पौराणिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों के बारे में जानकारी मिलती है। नरेन्द्र चौधरी ने कहा कि केदारघाटी में पौराणिक नृत्य की परंपरा युगों पूर्व की है।

देवभूमि के आध्यात्मिक, धार्मिक, पौराणिक व सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण-संवर्धन के संकल्पबद्ध है। संस्कृति को जीवित रखने के लिए सभी को एक मंच पर आने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हमारी पौराणिक परंपराएं जीवित हैं। पहाड़ के प्रत्येक व्यक्ति को इन्हें संजोने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा कि पांडव नृत्य असत्य पर सत्य की जीत का द्योतक है। केदारघाटी में आयोजित पांडव नृत्य में अनेक परंपराओं निर्वहन करने में ग्रामीणों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

चुन्नी गांव में चल रहे पांडव नृत्य कार्यक्रम में गांव के कुल पुरोहित यशोदा प्रसाद मैठानी, श्री केदार सभा के अध्यक्ष पं राजकुमार तिवारी, रविदास अखाड़ा के राष्ट्रीय प्रवक्ता नरेंद्र चौधरी, पांडव नृत्य कमेटी के अध्यक्ष बचन सिंह रावत, उपाध्यक्ष अंजना रावत, सचिव प्रेम सिंह रावत, उप सचिव सरोज तिवारी, कोषाध्यक्ष कर्मवीर बर्तवाल, शिवप्रसाद तिवारी, इंद्र सिंह, ब्रह्मानंद तिवारी, राजेंद्र सिंह रावत, वीरेंद्र सिंह रावत, अनुसूया प्रसाद, कमेटी के सदस्य विनोद रावत, अनुराग रावत, मदन सिंह रावत, गोबिंद शुक्ला, प्रदीप शुक्ला, अरंविद, अजय, सुभाष, विशाल, विनय, अक्षय पुष्पवान और अन्य लोग उपस्थित रहे।्र

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