राजस्थान के कोटपूतली में 3 साल की मासूम चेतना 6 दिन तक बोरवेल में फंसी रही। हादसे के कई घंटे तक शरीर में हलचल भी थी। लेकिन बाहर निकलने के लंबे इंतजार और भूख-प्यास ने चिंता की लकीरें बढ़ा दी हैं।
इस घटना के पीछे जितना जिम्मेदार चेतना के परिजन हैं, उससे ज्यादा लापरवाही उन अधिकारियों की है, जिन्होंने 29 घंटे केवल देसी जुगाड़ के भरोसे बर्बाद कर दिए।
देसी तरीके फेल होने के बाद प्लान ‘बी’ पर काम शुरू किया। राजस्थान का सबसे लंबा और कठिन रेस्क्यू ऑपरेशन का दावा करने वाली जिला कलेक्टर खुद 2 दिन बाद घटनास्थल पर पहुंचीं। इससे पहले 10 दिसंबर दौसा जिले में बोरवेल में गिरे 3 साल के मासूम आर्यन को बचाने में नाकामी की भी ऐसी ही वजहें थी।
बीते 6 साल में 59 से ज्यादा बोरवेल हादसों में भी यही हुआ। 40 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। कोटपूतली के इस रेस्क्यू ऑपरेशन में क्या चुनौतियां और क्या लापरवाहियां रहीं?
एक्सपर्ट की मदद से जाना कि आखिर क्यों बोरवेल हादसे हो रहे हैं? रेस्क्यू ऑपरेशन क्यों फेल हो जाते हैं?
सबसे पहले जानिए चेतना के रेस्क्यू में क्या-क्या लापरवाहियां सामने आईं?
1. पहली लापरवाही : रेस्क्यू टीम के आने से पहले किए प्रयास ने बढ़ाई दी दिक्कतें
कोटपूतली के किरतपुरा के बड़ियाली की ढाणी की चेतना सोमवार (23 दिसंबर) को 700 फीट गहरे बोरवेल में 150 फीट पर फंस गई थी। भास्कर पड़ताल में सामने आया कि चेतना बोरवेल में गिरी तब वो महज 15 फीट पर अटकी हुई थी। उसके रोने और चिल्लानें की आवाजें सुनाई दे रही थी।
लेकिन परिजनों ने जोखिम को अनदेखा कर बोरवेल में रस्सी डालकर अपने लेवल पर ही उसे बाहर निकालने का प्रयास किया। अंदर रस्सी डाली जिससे कि मासूम चेतना उसे पकड़े और उसे बाहर निकाला जाए। लेकिन आशंका है हाथ ऊपर करने से बोरवेल की दीवारों और चेतना के बीच गैप बन गया। इससे वो फिसल कर करीब 80 फीट गहराई तक चली गई।
क्या करना था? : दरअसल ऐसे मामलों में स्पेशलाइज्ड रेस्क्यू टीम बोरवेल में फंसे बच्चों को पहले अम्ब्रेला लॉक या L शेप की रॉड से होल्ड करते हुए फिक्स कर देते हैं। जिससे कि बच्चा जितनी गहराई पर होता है, उससे नीचे नहीं खिसकता। लेकिन रेस्क्यू टीम से पहले के प्रयास ही भारी पड़ गए।
कोटपूतली बोरवेल हादसे का ग्राफिक: चेतना 80 फीट पर अटक गई थी।
2. दूसरी लापरवाही : रेस्क्यू ऑपरेशन स्टार्ट होने में हुई देरी
दोपहर 2 बजे स्थानीय प्रशासन को हादसे की जानकारी मिल गई थी। बावजूद इसके आधे घंटे बाद एसडीआरएफ-एनडीआरएफ को बुलाने का कॉल लिया गया। इस बीच देसी जुगाड़ से बच्ची को निकालने के प्रयास शुरू किए। पौने 3 घंटे बाद यानी 5.15 बजे के करीब एसडीआरएफ की टीम मौके पर पहुंची। तब तक मासूम फिसलकर तकरीबन 150 फीट की गहराई तक पहुंच गई थी। इसके बाद एनडीआरएफ की टीम पहुंची तो सही मायने में 9.30 बजे रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू हुआ।
क्या करना था? : सूचना मिलते ही रेस्क्यू टीमें (SDRF और NDRF) 2 घंटे के भीतर पहुंच जाती तो शायद 80 फीट पर ही चेतना को होल्ड किया जा सकता था।
3. तीसरी लापरवाही : प्लान ‘ए’ और प्लान ‘बी’ एक साथ इम्प्लीमेंट नहीं किया
पड़ताल में सामने आया कि जिस बोरवेल में चेतना खेलते समय गिरी थी, उसमे से पाइप पहले ही बाहर निकाल लिए गए थे। अब वह मिट्टी का गहरा गड्ढा था। अंदर नमी होने से और मिट्टी चिकनी होने से ये आशंका पहले से ही थी कि देसी जुगाड़ से रेस्क्यू सफल होने के चांस बेहद कम हैं। लेकिन मौके पर मौजूद इंसिडेंट कमांडर (एडीएम व एसडीएम) इसे भांप नहीं पाए। इंसिडेंट कमांडर दूसरे प्लान पर काम ही शुरू नहीं कर पाए।
क्या करना था? : अगर तत्काल ही पाइलिंग मशीन से काम शुरू हो जाता तो रेस्क्यू ऑपरेशन में हुई देरी को टाला जा सकता था।
4. चौथी लापरवाही : चमत्कार के भरोसे बैठे रहे इंसिडेंट कमांडर, नहीं ले पाए सही डिसीजन
पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान टीमों और इंसिडेंट कमांडर का हायर लेवल कॉर्डिनेशन खराब रहा। दो दिन तक तो जिला कलेक्टर मौके पर नहीं पहुंची। एक्सपर्ट ने बताया कि मंगलवार को हादसा होने के तुरंत बाद ही पाइलिंग मशीन मंगवाने का निर्णय लेना चाहिए था। लेकिन एडीएम-एसडीएम ने इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया होगा। लंबे टाइम तक देसी जुगाड़ के भरोसे किसी चमत्कार की आस में बैठे रहे।
29 घंटे बर्बाद होने के बाद पाइलिंग मशीन मंगवाने का डिसीजन लिया। इसके बाद भी मशीन को रेस्क्यू ऑपरेशन वाली जगह तक जल्द पहुंचने की कोई तैयारी नहीं दिखी। पाइलिंग मशीन को घटनास्थल तक पहुंचाने के लिए रास्ता बनाने में भी काफी टाइम बर्बाद हो गया।
क्या करना था? : अधिकारियों को पहले दिन से ही प्लान ‘बी’ की संभावनाओं पर काम करते हुए तत्काल सारे इंतजाम करवाने चाहिए थे। क्योंकि हरियाणा के मानेसर से जो पाइलिंग मशीन मंगाई गई वो हादसे के 33 घंटे बाद मौके पर पहुंची थी। फिर उसने 9 घंटे बाद सुरंग खोदना शुरू किया। तबतक चेतना को बोरवेल में फंसे 42 घंटे बीत चुके थे।
मौसम से लेकर ग्राउंड स्तर पर कई चुनौतियों ने भी घेरा
चेतना के रेस्क्यू में देरी के ये जिम्मेदार
1. चेतना के अपने : बोरवेल खुला छोड़ने की भारी लापरवाही बरती। मासूम और अबोध बच्चियों को वहां अकेले खेलने के लिए छोड़ दिया।
2. इंसिडेंट कमांडर : रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान इंसिडेंट कमांडर एडीएम ADM ओमप्रकाश सारण और SDM बृजेश चौधरी थे। इनके निर्देश पर ही रेस्क्यू टीमें काम कर रही थी। रेस्क्यू टीम के पाइलिंग मशीन मंगवाने के प्लान पर गंभीरता से काम नहीं किया। इससे रेस्क्यू ऑपरेशन का टाइम बर्बाद हुआ।
3. जिला कलेक्टर : हादसे के पहले दो दिन तक कल्पना अग्रवाल मौके पर नहीं पहुंचीं। परिजनों से मिली तक नहीं। वजह पूछने पर 2 दिन तक छुट्टी पर होने का हवाला दिया। उच्च अधिकारी होने के नाते हाई लेवल मॉनिटरिंग नहीं होने से रेस्क्यू टीमों और इंसिडेंट कमांडर में कॉर्डिनेशन की कमी साफ दिखाई दी।
भास्कर ने दोनों अधिकारियों से सवाल-जवाब करने के लिए कई बार संपर्क किया, लेकिन कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला।
17 घंटे बाद गड्ढे से कैसे जिंदा बाहर आई थी मासूम नीरू?
18 सितंबर 2024 को दौसा के बांदीकुई इलाके के जोधपुरिया गांव में खेत में खेलते हुए 2 साल की मासूम नीरू करीब 35 फीट गहरे गड्ढे में गिर गई थी। इसके ठीक बगल में 600 फीट गहरा बोरवेल भी था। गड्ढे में 17 घंटे तक फंसी रही 2 साल की मासूम को एनडीआरएफ ने सुरंग खोदकर बचाया था। इस रेस्क्यू के सफल होने के पीछे 2 महत्वपूर्ण फैसले थे…
1. आधे घंटे में स्टार्ट हो गया था रेस्क्यू ऑपरेशन
इस केस में लोकल एडमिनिस्ट्रेशन और मौके पर मौजूद इंसिडेंट कमांडर ने जबरदस्त तत्परता दिखाई। हादसे के महज आधे घंटे बाद ही रेस्क्यू ऑपरेशन स्टार्ट कर दिया था। एनडीआरएफ टीम को बुलाने का कॉल भी तत्काल लिया। महज 4 घंटे बाद अजमेर से एनडीआरएफ टीम मौके पर पहुंची और रेस्क्यू ऑपरेशन को अपने कंट्रोल में ले लिया था।
तस्वीर 2 साल की मासूम नीरू के रेस्क्यू ऑपरेशन की है। नीरू बोरवेल में 35 फीट गहरे गड्ढे में गिर गई थी।
2. प्लान ‘ए’ और प्लान ‘बी’ पर एक साथ काम
इंसिडेंट कमांडर ने देखा कि इसके बाद जब देसी जुगाड़ से कोई खास सफलता नहीं मिल रही तो महज 9 घंटे बाद रात 2 बजे प्लान ‘बी’ पर काम शुरू किया। हादसे वाली जगह के पास ही गड्ढा खोदना और सुरंग बनाना स्टार्ट कर दिया। यही कारण रहा कि 17 घंटों बाद रेस्क्यू टीम सुरंग के रास्ते नीरू को जिंदा बाहर लेकर आ गई।
अब राजस्थान में हुए पिछले कुछ बोरवेल हादसों पर नजर डालते हैं, जहां परिस्थितियां भले ही अलग थी लेकिन गलतियां चेतना केस जैसी ही थी…
जयपुर सिविल डिफेंस टीम के डिप्टी कंट्रोलर और कंट्रोलर ने बताया बोरवेल में फंसे बच्चों को रेस्क्यू करने क्या आती है परेशानी…
- ज्यादातर लोग बोरवेल कामयाब नहीं होने पर उसमें लगे पाइप दूसरे काम में लेने के लिए बाहर निकाल लेते हैं।
- उसमें कोई बच्चा गिरता है तो उसे निकालने के दौरान मिट्टी गिरने का खतरा रहता है।
- ज्यादा गहराई में चिकनी मिट्टी और पानी होने के कारण उस गड्ढे में कोई भी इक्वीपमेंट काम नहीं करते।
- बच्चों को बाहर निकालने के लिए अभी तक कोई स्पेशलाइज्ड या रोबोटिक सिस्टम डेवलप नहीं हो पाया है।
- देसी जुगाड़ या तकनीक काम में ली जा रही है, ये भी पूरी तरह से इंजीनियरिंग सोच वाली और जल्द रिजल्ट्स देने वाली होती है।
- बचाव टीम अपना एल टाइप या अंब्रेला टाइप इक्यूपमेंट बनाती हैं यही प्लान ‘ए’ होता है।
- ये प्लान पहले इसलिए अपनाना पड़ता है कि ज्यादा देर तक मासूम के भूखे-प्यासे बोरवेल में फंसा रहने से जान का खतरा बना रहता है।
- रेस्क्यू टीम के पास ‘प्लान बी’ भी होता है, जिसमे पाइलिंग मशीन के सहारे बोरवेल से प्रॉपर डिस्टेंस बनाते हुए उसके पैरेलल एक ढलान शेप में गहरा गड्ढा खोदकर सुरंग बनाई जाती है।
सैकड़ों रेस्क्यू कर चुके मधाराम का बेटा बोला- रहती हैं कई चुनौतियां
जालोर जिले के निवासी माधाराम सुथार और उनके बेटे भीखाराम सुथार अपने देसी जुगाड़ से सैकड़ों रेस्क्यू ऑपरेशन को अंजाम दे चुके हैं। जुगाड़ी बोस के नाम से फेमस माधाराम राज्यस्तर पर सम्मानित भी हो चुके हैं। माधाराम के बेटे भीखाराम सुथार ने बताया कि कच्चे बोरवेल में कोई पाइप नहीं होता। ऐसे में कोई भी मशीन या औजार अंदर डालते ही बोरवेल की मिट्टी गिरने लगती है।
बाड़मेर के अर्जुन की ढाणी में रेस्क्यू के दौरान मधाराम सुथार।
एनडीआरएफ और एसडीआरएफ टीमों के पास भी कोई रोबोट तो होता नहीं है, इनके पास भी लोहे के सरिए और गुब्बारे जैसे देसी जुगाड़ ही होते हैं। कई बार तो देसी जुगाड़ से आधे घंटे में ही बच्चा बाहर निकल जाता है। मैंने और पिता ने मिलकर कई रेस्क्यू को आसानी से पूरा किया है। लेकिन हर एक ही प्रयास सफल नहीं हो पाता।
रेस्क्यू टीम को भी यही लगता है कि कुछ टाइम बाद ही बच्चे को बाहर निकाल लेंगे। बार-बार वही प्रयास दोहराने से टाइम निकला जाता है। पाइलिंग मशीन बुलाने में ही देरी कर देते हैं। जब तक वो पहुंचती है तब तक कई मामलों में देर हो चुकी होती है।
बोरवेल हादसों पर क्या कहती है सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन?
खुले बोरवेल में छोटे बच्चों के साथ होने वाली गंभीर दुर्घटनाओं और उनकी मौत पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 6 अगस्त 2010 में एक आदेश पारित किया था। तत्कालीन चीफ जस्टिस S.H कपाड़िया, जस्टिस K.S राधाकृष्णन और जस्टिस स्वतंत्र कुमार की बेंच ने रिट पिटीशन पर सुनवाई करने के बाद कई दिशा-निर्देश जारी किए थे…
- बोरवेल की खुदाई कराने के पहले अपने एरिया के संबंधित जिला कलेक्टर, जिला मजिस्ट्रेट, ग्राम पंचायत के सरपंच और अन्य वैधानिक अधिकारी और PHED को लिखित सूचना देनी है।
- बोरवेल की खुदाई करने वाले ठेकेदार या संस्था का रजिस्ट्रेशन जिला प्रशासन या संबंधित सक्षम अधिकारी के कार्यालय में होना चाहिए।
- बोरवेल की खुदाई वाले स्थान पर साइन बोर्ड लगाया जाना चाहिए, जिस पर मालिक, एजेंसी या ठेकेदार का पूरा पता और विवरण दर्ज हो।
- आसपास कंटीले तारों की फेंसिंग या अन्य प्रॉपर व्यवस्था हो।
- बोरवेल बनने के बाद उसके केसिंग पाइप के चारों तरफ सीमेंट या कॉन्क्रीट का प्लेटफार्म बनाया जाए। इसकी ऊंचाई 0.30 मीटर होनी चाहिए। और प्लेटफार्म जमीन में 0.30 मीटर गहराई तक बनाना होगा।
- केसिंग पाइप के मुंह पर स्टील की प्लेट वेल्ड की जाएगी या नट-बोल्ट से अच्छी तरह से कसी हो। पंप रिपेयर के समय बोरवेल के मुंह को बंद रखा जाए।
- बोरवेल खोदने के बाद गड्ढे और पानी वाले मार्ग को समतल लेवल का करना होगा।
- यदि किसी कारणवश बोरवेल को अधूरा छोड़ना पड़ता है तो उसे मिट्टी, रेत, बजरी से पूरी तरह ग्राउंड लेवल तक भरकर पुरानी स्थिति को बहाल करना होगा।
- इन दिशानिर्देशों का पालन कराने की जिम्मेदारी कलेक्टर को दी गई थी।
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कोटपूतली में 7 दिन से चल रहे रेस्क्यू ऑपरेशन में टीम अब भी चेतना (3) तक नहीं पहुंच सकी है। चेतना को निकालने के लिए एनडीआरएफ के जवान 170 फीट गहराई में सुरंग खोद रहे हैं। पूरी खबर पढ़िए…
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