महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों के नतीजे आ गए हैं. दोनों ही राज्यों के नतीजे हैरान करने वाले हैं. महाराष्ट्र में तो भाजपा ने 132 सीटें कर जो अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, उसकी उम्मीद खुद उसे भी नहीं थी. झारखंड में भी सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) पहले से ज्यादा ताकतवर होकर लौटी है. दोनों राज्यों के चुनाव परिणामों में हैरानी का जो ‘कॉमन एलिमेंट’ मौजूद है, उसके अलावा ये कुछ ट्रेंड्स को भी स्थापित करते हैं. इनमें से कुछ ट्रेंड्स दीर्घकालिक लिहाज से खतरनाक भी हैं. यहां हम उन्हीं कुछ ट्रेंड्स की बात करेंगे जो बीते कुछ चुनावों से बार-बार सही साबित हो रहे हैं और इन दो राज्यों के चुनावों में भी सही साबित हुए हैं.
सबसे पहले बात ‘रेवड़ियों’ की
इन चुनावों ने भी साबित किया है कि पार्टियों ने जनता को बांटे जाने वाली ‘रेवड़ियों’ में अपनी जीत का नुस्खा तलाश लिया है. इसमें भी सीधे खाते में पैसा देना वोट मिलने की एक तरह से गारंटी बन गया है. ‘लाभार्थी’ नाम का नया मतदाता वर्ग बना कर वोट पाने की सत्ताधारी पार्टियों में होड़ मची हुई है. मुफ्त राशन योजना को 2025 तक जारी रखने का केंद्र सरकार का ऐलान इस दिशा में मास्टरस्ट्रोक माना जाता है. राज्य स्तर पर भी यह होड़ लगातार बढ़ रही है.
महाराष्ट्र, झारखंड में हुए चुनावों से एक साल पहले हुए तमाम राज्यों के चुनावों में हमने देखा कि नेताओं ने जनता के लिए मुफ्त में दी जाने वाली चीजों या सुविधाओं के वादों की झड़ी लगा दी. मध्य प्रदेश (नवंबर 2023), छत्तीसगढ़ (नवंबर, 2023), राजस्थान (नवंबर 2023), तेलंगाना (नवंबर, 2023), हरियाणा (अक्तूबर 2024) सभी जगह सीधे खाते में कैश डालने से लेकर मुफ्त बिजली, कर्जमाफी, सस्ता सिलेंडर, सस्ता कर्ज आदि कई वादे किए गए. इससे कई साल पहले दिल्ली में अरविंद केजरीवाल मुफ्त बिजली-पानी के वादे पर सत्ता हासिल कर नेताओं को इस राह पर चलने की प्रेरणा दे चुके थे.
जाहिर है, सरकारों/पार्टियों की ऐसी घोषणाएं सरकारी खजाने पर भारी पड़ती हैं और इसका सीधा असर विकास कार्यों में कटौती के रूप में सामने आता है. लंबे वक्त में यह नागरिकों को कर्ज के जाल में भी फंसा देगा. इसका ज्यादा असर मध्य वर्ग, या कहें उन पर होगा जो ऐसी योजनाओं के फायदे के दायरे से बाहर रहते हैं. ऐसे में उनमें असंतोष बढ़ेगा, जो खतरनाक रूप भी ले सकता है.
ध्रुवीकरण से मुक्ति नहीं
इन चुनावों ने यह भी साबित किया है कि चुनाव कोई भी हो, कहीं भी हो, हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश होगी ही. चुनावों में जातीय आधार पर गोलबंदी का चलन पुराना रहा है, लेकिन बीते कुछेक दशकों से सांप्रदायिक आधार पर गोलबंदी का चलन चल पड़ा है.
हर चुनाव में इसका पिछले से ज्यादा खतरनाक रूप सामने आता रहा है. सोशल मीडिया के इस दौर में नियमों की हद से पार जाकर भी ध्रुवीकरण होने लगा है.
जैसा हमने झारखंड के चुनाव में देखा कि किस तरह सीधे मुस्लिम चेहरों को दिखाते हुए वीडियो बना कर सोशल मीडिया के जरिये प्रसारित कराया गया. शिकायत के बाद चुनाव आयोग ने एक्शन लिया, लेकिन तब तक ‘काम’ हो गया था.
हर चुनाव अलग है
एक देश, एक चुनाव के लिए बनते माहौल के बीच झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव नतीजों ने भी यह साबित किया कि हर चुनाव अलग है. महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में जिन पार्टियों ने अच्छा प्रदर्शन किया, अभी वे चारों खाने चित हो गईं. जो तब चारों खाने चित हो गई थीं, वे अब रेस में अव्वल आ गईं.
दोनों ही राज्यों में भाजपा ने केंद्रीय नेताओं के दम पर लगभग एक ही मूल मुद्दे पर प्रचार अभियान चलाया. लेकिन, दोनों ही जगह उसके लिए परिणाम एकदम अलग रहे. ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ या ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ जैसे नारे दोनों ही प्रदेशों में चले, पर कह नहीं सकते कि दोनों जगह इसका असर एक जैसा रहा या समान रूप से बेअसर रहा.
परिवार एंड कंपनी वाली पार्टी टिकाऊ नहीं
एक व्यक्ति या परिवार की धुरी पर चलने वाली पार्टी लंबे समय तक नहीं चलती, इस चुनाव ने यह ट्रेंड भी साबित किया है. हरियाणा में हमने लाल या चौटाला परिवार की पार्टी का हश्र देखा था. अब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे या शरद पवार की पार्टी का देख रहे हैं. शरद पवार की एनसीपी को जहां महज दस सीटें मिलीं, वहीं अजीत पवार गुट को 41 सीटों पर जीत हासिल हुई. शिंदे सेना को 57 सीटें मिलीं तो उद्धव सेना 20 पर सिमट गई. राज ठाकरे की पार्टी का मरसिया पहले ही पढ़ा जा चुका है.
मतदाताओं के रूप में महिलाओं का ज्यादा सम्मान
महिलाओं को राजनीति में भले ही ज्यादा भागीदारी न दी जाए, वोट लेने के लिए उन्हें ज्यादा अहमियत देनी ही पड़ेगी. महाराष्ट्र में महिला विधायकों की संख्या इस बार (22) पिछली बार से दो कम ही हो गई है. झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा में इस बार सबसे ज्यादा महिला विधायक चुनी गई हैं. फिर भी इनकी संख्या महज 12 है. यानी 15 प्रतिशत. पर महिला मतदाता करीब आधी हैं.
ऐसे में झारखंड हो या महाराष्ट्र, दोनों ही जगह उन्हें ध्यान में रख कर वादे किए गए और सुविधाएं दी गईं. महाराष्ट्र की लाड़की बहिन योजना हो या झारखंड की मंइयां योजना, दोनों महिलाओं के लिए ही हैं. सस्ते सिलेंडर का वादा भी मुख्य रूप से महिला मतदाताओं को ध्यान में रख कर ही किया जाता है. केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना, ड्रोन दीदी योजना, लखपती दीदी योजना सहित कई योजनाओं के केंद्र में भी महिला मतदाता ही हैं.
महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार महिलाओं के मतदान का आंकड़ा छह प्रतिशत ज्यादा था. इससे पहले केवल एक ही बार इतनी बड़ी तादाद में महिलाएं मतदान केंद्र तक आई थीं. माना जा रहा है कि यह लाड़की बहिन योजना का ही असर रहा कि महिलाओं ने बढ़-चढ़कर मतदान किया.
झारखंड में भी 85 प्रतिशत सीटों पर पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया. केवल 12 सीटें ऐसी हैं जहां पुरुषों ने महिलाओं से ज्यादा वोटिंग की.
एग्जिट पोल्स बस यूं ही
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणामों ने भी यह साबित किया कि एग्जिट पोल्स बस यूं ही टीवी पर चलने वाले चुनावी तमाशे के एक ‘आइटम’ के तौर पर पेश किए जाते हैं. लगभग सभी एग्जिट पोल्स एक बार फिर फेल हो गए. ऐसे में एग्जिट पोल्स करने और उनके नतीजे बताने-दिखाने वालों को भी सोचना होगा कि क्या उन्हें इसे लेकर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है?
FIRST PUBLISHED : November 24, 2024, 16:27 IST
- व्हाट्स एप के माध्यम से हमारी खबरें प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
- टेलीग्राम के माध्यम से हमारी खबरें प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
- हमें फ़ेसबुक पर फॉलो करें।
- हमें ट्विटर पर फॉलो करें।
———-
🔸 स्थानीय सूचनाओं के लिए यहाँ क्लिक कर हमारा यह व्हाट्सएप चैनल जॉइन करें।
Disclaimer: This story is auto-aggregated by a computer program and has not been created or edited by Ghaziabad365 || मूल प्रकाशक ||