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सौरभ भारद्वाज
– फोटो : वीडियो ग्रैब

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दिल्ली सरकार ने डीडीसीडी को भंग कर इसके तीनों गैर आधिकारिक सदस्यों को हटाने के आदेश पर कड़ी आपत्ति जताई है। सरकार का कहना है कि एलजी का यह निर्णय अवैध, असांविधानिक और उनके कार्यालय के अधिकार क्षेत्र का खुला उल्लंघन है। 

डीडीसीडी दिल्ली के मुख्यमंत्री के अधीन आता है और इसके सदस्यों पर कार्रवाई करने का अधिकार केवल सीएम के पास है। डीडीसीडी को भंग करने के पीछे एलजी का एकमात्र उद्देश्य दिल्ली सरकार के सभी कार्यों को रोकना है। सरकार एलजी के इस गैरकानूनी आदेश को कोर्ट में चुनौती देगी।

डीडीसीडी का गठन 29 अप्रैल 2016 को गजट नोटिफिकेशन के माध्यम से किया गया था और इसे दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल ने अपनी मंजूरी भी दी थी। एलजी वीके सक्सेना ने मौजूदा नियम-कानूनों का उल्लंघन करने के साथ-साथ तत्कालीन उपराज्यपाल के फैसले की भी खुलेआम अवहेलना की है।

उपराज्यपाल की कार्रवाई राजनीतिक : दिल्ली सरकार

दिल्ली संवाद एवं विकास आयोग (डीडीसीडी) पर हुई उपराज्यपाल की कार्रवाई को आम आदमी पार्टी ने राजनीति बताया है। दिल्ली के शहरी विकास मंत्री सौरभ भारद्वाज का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारों के सभी आयोगों, समितियों और बोर्डों में अक्सर बिना किसी औपचारिक परीक्षा या साक्षात्कार के जरिये राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं। इसमें भाजपा शासित राज्य भी शामिल हैं। यह एक लंबे समय से चली आ रही प्रथा है। महिला आयोग, एससी/एसटी आयोग और अल्पसंख्यक आयोग सहित विभिन्न पब्लिक कमीशन इसी प्रथा के उदाहरण हैं। हाल ही में 9 मार्च को भाजपा नेता किशोर मकवाना को अनुसूचित जाति आयोग का प्रमुख नियुक्त किया गया है। किशोर मकवाना गुजरात भाजपा के प्रवक्ता भी हैं। 

‘गठन का मकसद खो चुका था डीडीसीडी’

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा दिल्ली डायलॉग डेवलपमेंट कमीशन को अस्थायी रूप से भंग किए जाने का स्वागत किया है। सचदेवा ने कहा कि दिल्ली सरकार ने विकास कार्य वाले इस संस्थान को राजनीतिक साथियों के आर्थिक उत्थान के लिए दुरुपयोग किया। एक अच्छे उद्देश्यों के लिए बना यह आयोग शुरू से ही विवादों में रहा है। सचदेवा ने कहा है कि दिल्ली सरकार ने प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से इस आयोग को बनाया। विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी थी पर कार्यकर्ताओं को ही इसमें शामिल कर लिया गया। पहले अध्यक्ष आशीष खेतान की तरह ही दूसरे अध्यक्ष जैस्मीन शाह भी विवादों में घिर गए। विशेषज्ञों के नाम पर अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने का खेल किया गया और इसी के उदाहरण खेतान और शाह है।

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