मुहर्रम के दौरान हर साल ग्वालियर के इमामबाड़े में सिंधिया परिवार की ओर से ताजिया रखने की परंपरा रही है. यह परंपरा करीब ढाई सौ सालों से चली आ रही है. अपने दौर के सबसे प्रभावशाली राजवंश के लिए यह कोई सियासी मजबूरी नहीं थी, बल्कि इसका उद्देश्य भारत की सदियों पुरानी गंगा-जमुना संस्कृति का सम्मान करना था. और यह सम्मान भी इस हद तक कि अगर मुहर्रम माह के दौरान राजघराने में कोई शादी होती, तो उसके वेन्यू को शहर से करीब 100 किमी दूर रखा जाता था. मकसद मुहर्रम के शोक महीने में खुशियों से भरा ऐसा कोई आयोजन नहीं करना, जिससे मुस्लिमों की भावनाओं को ठेस पहुंचे, जबकि उस वक्त ग्वालियर में मुसलमानों की आबादी 6 फीसदी से भी कम थी.
ताजिये को लेकर सिंधिया राजघराने के एक शासक माधो राव (1876-1925), जिन्हें माधो महाराज के नाम से जाना जाता है, का एक किस्सा काफी मायने रखता है. एक बार ग्वालियर के इमामबाड़े में रखे मुहर्रम के उस ताजिये में आग लग गई, जिसे सिंधियाओं की अगुवाई में निकाला जाना था. यह आग शॉर्ट सर्किट से लगी थी और उस पर जल्दी ही काबू भी पा लिया गया था. जले हुए ताजिये की जगह वैकल्पिक व्यवस्था भी कर ली गई थी, लेकिन इससे महाराजा भारी सदमे में पहुंच गए थे. उन्होंने इस आग को दिल पर ले लिया था. ग्वालियर महल में कार्य करने वाले कौड़ीकर बाबूजी ने अपने अप्रकाशित संस्मरणों में माधो महाराज को उद्धृत करते हुए लिखा है, “ताजिया नहीं, बल्कि ऐसा लगा मानो मैं खुद भस्म हो गया.’ बाबूजी लिखते हैं कि ग्वालियर की गलियों में सवारी करते महाराजा की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे.
कैसे पड़ी यह परंपरा?
हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भाव की परंपरा सिंधिया राजवंश के संस्थापक राणोजीराव से ही चली आ रही है. उनके जमाने में महाराष्ट्र के बीड में मंसूर अली शाह एक सिद्ध सूफी संत हुआ करते थे, जिन्होंने भविष्यवाणी की थी कि आने वाली कई पीढ़ियों तक सिंधिया परिवार को भरपूर शोहरत मिलेगी. राणोजी और उनकी पत्नी चिमना बाई अक्सर उनसे मिलने पहुंच जाया करते थे. उनसे मिलने में उन्हें आध्यात्मिक शांति मिलती थी.
एक किंवदंती ऐसी भी…
कहानी के अनुसार एक अफगान सैनिक महादजी को पकड़ने के लिए उनका पीछा करता है और महादजी युद्धभूमि से बाहर निकल आते हैं. वह अफगान सैनिक महादजी को पकड़ने ही वाला होता है कि महादजी के घोड़े को ठोकर लगती है और वे एक खाई में गिर जाते हैं. कहा जाता है कि गंभीर रूप से घायल महादजी को राणे खान ही अपनी बैलगाड़ी में बैठाकर पानीपत से डेक्कन तक ले गया और इस तरह उनकी जान बच सकी. वर्ष 1765 में गोहद के राजा से फिर से ग्वालियर अपने कब्जे में करने के बाद महादजी ने राणे खान को जागीरदार बनाया था.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मिले जख्मों के ठीक होने के बाद महादजी ने भरतपुर के जाटों, बेरार, राजपुताना, मालवा, बुंदेलखंड व रोहिलखंड के खिलाफ और दिल्ली के आसपास के इलाकों में कई युद्ध अभियानों का नेतृत्व किया. केवल 25 साल की उम्र में ही उन्होंने मथुरा पर अधिकार जमा लिया और भगवान कृष्ण के भक्त बन गए. इस धार्मिक शहर में उन्होंने कई जीर्ण-शीर्ण मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया. सिंधियाओं द्वारा 1785 में प्रकाशित एक गजेटियर के दावानुसार महादजी ने ऐसी सेना खड़ी कर दी थी, जिसमें नियमित पैदल सेना (इन्फैंट्री) की 16 बटालियनें, 500 तोपें और एक लाख से भी अधिक घुड़सवार सैनिक शामिल थे. वर्ष 1782 में प्रथम एंग्लो-मराठा युद्ध की समाप्ति तक महादजी एक बेहद शक्तिशाली मराठा शासक और समसामयिक मामलों में प्रभावी शख्सियत बन चुके थे.
यह महादजी की राजनीतिक दूरदर्शिता का ही नतीजा था कि आने वाले वर्षों में उन्होंने मुगलों के साथ मिलकर काम किया. पत्रकार वीर सांघवी और नमिता भंडारे ने अपनी किताब ‘माधवराव सिंधिया : अ लाइफ’ में लिखा कि महादजी ने समझ लिया था कि अंग्रेजों से वे अकेले नहीं लड़ सकते थे और इसलिए उन्होंने मुगलों को अपना साझेदार बनाया. इस गठबंधन की वजह से मुगलों के लिए महादजी एक जरूरत बन गए. वर्ष 1784 में मुगल बादशाह शाह आलम ने महादजी से मदद की गुजारिश की. शाह आलम को उनके ही दरबार के एक मंत्री अफरासियाब खान ने अपने हाथों की कठपुतली बना रखा था. महादजी ने अपनी विशाल सेना के साथ मुगल साम्राज्य में प्रवेश किया और शाह आलम को फिर से मुगल शासक के तौर पर स्थापित किया. इस तरह वे परोक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के ही सर्वेसर्वा बन गए थे.
1788 में जब रोहिल्ला लड़ाके गुलाम कदिर ने मुगलों की गद्दी पर कब्जा कर लिया और शाह आलम को बंदी बनाकर उन्हें अंधा कर दिया, तब महादजी को एक बार फिर दिल्ली में दखल देना पड़ा. इस बार भी महादजी ने अपनी वीरता का प्रदर्शन कर शाह आलम को मुगलों के तख्त-ओ-ताज पर बैठाया. इसके बदले में शाह आलम ने उन्हें ‘वकील-उल-मुतलक’ यानी राज्य के संरक्षक का खिताब प्रदान किया. इस समय तक पेशवा और मुगल साम्राज्य दोनों अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से महादजी पर आश्रित हो गए थे.
वर्ष 1794 में महादजी का देहांत हो गया. अगर वे कुछ साल और जीवित रहते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि सिखों, अफगानियों, निजाम, टीपू सुल्तान और मराठाओं को एक छत के नीचे ले आते और तब शायद अंग्रेज इस उपमहाद्वीप में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं रहते.
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