ब्रिटिश शासन के दौरान, 1858 के भारत सरकार अधिनियम के लागू होने से एक नया प्रशासनिक ढांचा सामने आया. इसमें गवर्नर, ब्रिटिश क्राउन के एजेंट के रूप में गवर्नर जनरल नामक एक हाई अथॉरिटी के अधीन काम करता था. 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के लागू होने के बाद भी, राज्यपाल देश में प्रांतीय प्रशासन के केंद्र में बने रहे और महत्वपूर्ण अधिकार का प्रयोग करते रहे. इसके बाद, 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने प्रांतीय स्वायत्तता ला दी और राज्यपाल को औपचारिक रूप से मंत्रियों की सलाह पर काम करने की जरूरत पर बल दिया. कानून ने अभी भी राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की रक्षा की, जैसे कि विधान परिषद द्वारा पारित विधेयक को वीटो करना.
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कैसे अस्तित्व में आया गवर्नर पद
द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वतंत्रता के समय, 1925 के कॉमनवेल्थ इंडिया बिल, 1928 की नेहरू रिपोर्ट और हिंदुस्तान फ्री स्टेट एक्ट के संविधान में राज्यपाल के पद को बरकरार रखने पर जोर दिया गया था. शुरुआती दिनों में संविधान सभा निर्वाचित गवर्नर के पक्ष में थी. लेकिन जैसे-जैसे संविधान का निर्माण पूरा हुआ, राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत गवर्नर के पक्ष में समर्थन बढ़ता गया. राज्यपाल राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि होता है. वह मुख्यमंत्री द्वारा किए गए कामों की निगरानी करता है. केंद्र को राज्य में होने वाली गतिविधियों से अवगत कराता है.
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गवर्नर की सैलरी और सुविधाएं
जब गवर्नर पद पर होते हैं तो उन्हें बहुत अच्छी सैलरी और सुविधाएं मिलती हैं. उनकी सैलरी 3.5 लाख रुपये महीना होती है. उन्हें शानदार सरकारी आवास मिलता है. बहुत लंबा चौड़ा स्टाफ मिलता है. अगर राष्ट्रपति के बाद अगर किसी को इतनी सुविधाएं और वेतन मिलता है तो वो राज्यपाल ही होते हैं. तब उन्हें यात्रा भत्ते से लेकर टेलीफोन भत्ता और अपने आवास को सुसज्जित कराने के लिए खासा भत्ता मिलता है. इसके अलावा उन्हें इलाज की सुविधा और बिजली का बिल जैसी कई विशेष सुविधाएं पद पर रहते हुए मिलती हैं. लेकिन क्या कार्यकाल खत्म होने के बाद उनकी ये सुविधाएं जारी रहती हैं.
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क्या मिलता है रिटायरमेंट के बाद
लेकिन एक बार जब कोई राज्यपाल रिटायर हो जाता है तो सरकार उन्हें ना तो कोई आवास उपलब्ध कराती है और ना ही कोई पेंशन या भत्ता देती है. उन्हें केवल एक ही भत्ता मिलता है, जो चिकित्सा से जुड़ा है. स्वास्थ्य खराब होने की स्थिति में सरकार उनका पूरा खर्च उठाती है. लेकिन इसके अलावा सारे खर्च उन्हें खुद ही वहन करने होते हैं. 1982 के अधिनियम के तहत राज्यपालों को पेंशन देने का कोई प्रावधान नहीं है. हालांकि ये हैरानी की बात है कि जिस देश में राष्ट्रपति से लेकर एक विधायक तक को रिटायर होने के बाद पेंशन और सुविधाएं मिलती हैं तो राज्यपाल को क्यों इससे वंचित रखा जाता है. जब तक कई राज्यपाल अपने पद पर होता है, तब तक उस राज्य की संचित निधि से उसको वेतन और भत्ते दिए जाते हैं. इसके बाद राज्य उसे अपनी निधि से कुछ भी देना बंद कर देता है.
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लाया गया था पेंशन का बिल
द गर्वनर्स एमेंडमेंट बिल 2012 को 10 दिसंबर 2012 को लोकसभा में तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पेश किया था. इसमें राज्यपाल रहते हुए उनकी परिलब्धियों को प्रति माह 1,10,000 देने का प्रावधान किया गया, जबकि पूर्व राज्यपाल को केवल चिकित्सा सुविधा का ही हकदार माना गया. बिल में राज्यपाल को ताउम्र एक कार्यालय सहायक देने की प्रावधान किया गया जिसका वेतन 25,000 रुपये महीना होगा. इससे पहले साल 2008 में भी केंद्र सरकार ने राज्यपालों को पेंशन दिए जाने के मामले में कोशिश की थी, लेकिन ये आगे नहीं बढ़ पाया. मामला यहां आकर अटक गया कि पूर्व राज्यपालों को अगर पेंशन दी जाए तो किस निधि से दी जाए. केंद्र चाहता था कि राज्य ये जिम्मा उठाएं लेकिन राज्यों ने केंद्र के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया. उनका तर्क था कि क्योंकि वे राज्य में केंद्र के प्रतिनिधि के बतौर तैनात किए जाते हैं, लिहाजा पेंशन की राशि केंद्र द्वारा दी जानी चाहिए. इसके बाद मामला वहीं खत्म हो गया.
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ज्यादातर को नहीं होती पेंशन की जरूरत
आमतौर पर हमारे देश में जो राज्यपाल नियुक्त होते हैं, वो वरिष्ठ नौकरशाह रहे होते हैं. ज्यादातर कैबिनेट सेक्रेटरी, केंद्र में सेक्रेटरी या राज्य में चीफ सेक्रेटरी रहे होते हैं. इनके अलावा पूर्व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, पूर्व केंद्रीय मंत्रियों या पूर्व रायनयिकों को भी राज्यपाल बनाया जाता है. इसीलिए वो राज्यपाल पद से हटने के बाद अपने पूर्व पद के लिए मिलने वाली पेंशन से गुजर-बसर करते हैं. अगर कोई राज्यपाल इनमें से किसी सरकारी पद पर नहीं रहा हो तो भी उसकी आजीविका के लिए सरकार कुछ नहीं करती है. ऐसे में अपने सारे खर्च उन्हें खुद ही वहन करने होते हैं.
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