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फ्रांस में रविवार को पहले राउंड का संसदीय चुनाव हुआ. इसमें धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली को बढ़त मिलने संभावना है. इस पार्टी की नेता मरीन ली पेन हैं. शुरुआती रुझानों से ऐसा लगता है कि ली पेन अगली सरकार बनाने में सफल होंगी. पहले दौर के लिए रविवार को 60 फीसदी से अधिक मतदान हुआ. यह पिछले बार के मतदान से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. अनुमान है कि नाजी युग के बाद सत्ता की बागडोर पहली बार किसी राष्ट्रवादी एवं धुर-दक्षिणपंथी ताकत के हाथ में जा सकती है.

फ्रांस में क्या है व्यवस्था
फ्रांस में दो स्तरीय शासन व्यवस्था है. सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है वहीं राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति होता है. यहां दोनों का चुनाव सीधे जनता करती है. दोनों के अधिकार बंटे हुए हैं. इस संसदीय चुनाव में जिस दल या गठबंधन को सदन में 50 फीसदी से अधिक सीटें मिलती है वो सरकार बनता है और उसके नेता को राष्ट्रपति, पीएम नियुक्त करते हैं. यहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों मिलकर फैसले लेते हैं.

राष्ट्रपति और पीएम में से कौन ज्यादा ताकतवर
दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और अमेरिका से इतर फ्रांस की व्यवस्था थोड़ी उलझाऊ है. यहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों के पास अच्छी खासी शक्तियां हैं. जबकि भारत में प्रधानमंत्री के पास सारी कार्यकारी शक्तियां होती हैं वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति के पास ये सभी शक्तियां होती हैं. फ्रांस में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुने जाते हैं. ऐसे में जब एक ही दल के दो नेता राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनते हैं तो उनके बीच सरकार चलाने में कोई दिक्कत नहीं आती है. लेकिन, जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अलग-अलग दलों या गठबंधन से होते हैं तो उस वक्त दिक्कत आ सकती है. इस बार के चुनाव में कुछ ऐसी ही स्थिति बनी है.

इसे तकनीकी भाषा में कोहैबिटेशन (cohabitation) कहा जाता है. फ्रांस के इस मध्यावधि चुनाव में अगर नेशनल रैली को बहुमत मिल जाता है तो मैक्रों को एक ऐसे पीएम के साथ काम करना होगा जो वैचारिक तौर पर उनके धुर विरोधी दल का होगा. ऐसे में टकराव की स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है. मैक्रों को अपने फैसले को संसद से मंजूरी दिलाने में दिक्कत आएगी. साथ ही उनका नैतिक बल भी पहले की तुलना में कमजोर रहेगा. क्योंकि ऐसा माना जाता है कि चुनाव में जनता ने मैक्रों की नीतियों को खारिज किया है. इसी कारण उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है. हालांकि, तकनीकी तौर पर मैक्रों का राष्ट्रपति का कार्यकाल 2027 तक है और उस पर इस चुनाव का सीधा कोई असर नहीं पड़ेगा.

दो चरण में चुनाव
दो चरणों में हो रहा संसदीय चुनाव सात जुलाई को संपन्न होगा. चुनाव परिणाम से यूरोपीय वित्तीय बाजारों, यूक्रेन के लिए पश्चिमी देशों के समर्थन और वैश्विक सैन्य बल एवं परमाणु शस्त्रागार के प्रबंधन के फ्रांस के तौर-तरीके पर काफी प्रभाव पड़ने की संभावना है. अनेक फ्रांसीसी मतदाता महंगाई और आर्थिक चिंताओं से परेशान हैं. वे राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के नेतृत्व से भी निराश हैं.

मरीन ले पेन की आव्रजन विरोधी नेशनल रैली पार्टी ने इस असंतोष को चुनाव में भुनाया है और उसे विशेष रूप से टिकटॉक जैसे ऑनलाइन मंचों के जरिए हवा दी है. चुनाव पूर्व सभी जनमत सर्वेक्षणों में नेशनल रैली की जीत का अनुमान जताया गया है. नया वामपंथी गठबंधन न्यू पॉपुलर फ्रंट भी व्यापार समर्थक मैक्रों और उनके मध्यमार्गी गठबंधन टुगेदर फॉर द रिपब्लिक के लिए चुनौती पेश कर रहा है.

अचानक चुनाव की घोषणा
इस साल जून के शुरू में यूरोपीय संसद के चुनाव में नेशनल रैली से मिली करारी शिकस्त के बाद मैक्रों ने फ्रांस में मध्यावधि चुनाव की घोषणा की थी. नेशनल रैली का नस्लवाद और यहूदी-विरोधी भावना से पुराना संबंध है और यह फ्रांस के मुस्लिम समुदाय की विरोधी मानी जाती है. देश में 4.95 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं जो फ्रांस की संसद के प्रभावशाली निचले सदन नेशनल असेंबली के 577 सदस्यों को चुनेंगे. मतदान बंद होने से तीन घंटे पहले 59 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. यह 2022 में हुए पहले दौर के मतदान से 20 प्रतिशत अधिक है.

भारत के साथ रिश्तों पर असर और मैक्रों की चुनौती
चुनाव में अपने गठबंधन के खराब प्रदर्शन के बाद भी सीधे तौर पर बतौर राष्ट्रपति मैक्रों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन, संसद में उनकी स्थिति कमजोर होगी और इस कारण उनको अपने फैसले को मंजूरी दिलाने में दिक्कर आएगी. यह उनके लिए एक असजह स्थिति होगी. उनको एक ऐसे प्रधानमंत्री के साथ काम करना होगा जो पूरी से विरोध दल का नेता होगा. ऐसे में मैक्रों को फैसले लेने की मनमानी नहीं रहेगी. इसका असर भारत के साथ रिश्तों पर भी थोड़ा पड़ सकता है. मैक्रों के कार्यकाल में फ्रांस, भारत का एक रणनीतिक साझेदार बनकर उभरा है. पीएम मोदी के साथ उनके रिश्ते काफी बेहतर हैं. मैक्रों के कार्यकाल दोनों देशों के बीच कई सामरिक समझौते हुए हैं. हालांकि, यह भी तथ्य है कि दक्षिणपंथी गठबंधन नेशनल रैली की नीतियां भी भारत विरोध की नहीं रही है.

28 साल के नेता बनेंगे पीएम
इस चुनाव में जीत मिलने के बाद एनआर अलायंस के 28 साल के नेता जॉर्डन बारडेला अगले पीएम बन सकते हैं. हालांकि पहले उन्होंने कहा था कि वह एक अल्पमत की सरकार का नेतृत्व नहीं करना चाहेंगे. ऐसे में अगर आरएन गठबंधन बहुमत से दूर रह जाता है तो मैक्रों के वामपंथी गठबंधन के किसी नेता तो पीएम बनाना होगा.

मैक्रों यहां कर सकते हैं खेल
संसद में अपनी स्थित मजबूत बनाने और धुर दक्षिणपंथी गठबंधन को सत्ता से दूर रखने के लिए मैक्रों की पार्टी और वाम गठबंधन हाथ मिला सकते हैं. इससे पहले भी वे दक्षिणपंथी गठबंधन को सत्ता से दूर रखने के लिए ऐसा कर चुके हैं. ये दोनों किसी भी कीमत पर नेशनल रैली को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं.

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