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नई दिल्ली32 मिनट पहले

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CJI डीवाई चंद्रचूड़ जून की शुरुआत में ऑक्सफोर्ड यूनियन सोसाइटी के एक इवेंट में मौजूद थे, जहां उन्होंने ये बातें कहीं।

भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ जून में लंदन गए थे। जहां ऑक्सफोर्ड यूनियन सोसाइटी ने उनके साथ एक चर्चा रखी। इस दौरान उनसे पूछा गया कि पिछले कुछ सालों में ज्यूडीशियरी पर पॉलिटिकल प्रेशर बढ़ा है, इस पर उन्होंने कहा कि बतौर जज 24 साल के कॅरियर में उन्हें कभी भी किसी सरकार के राजनीतिक दबाव का सामना नहीं करना पड़ा।

CJI ने कहा कि परंपराओं के अनुसार भारत में जज सरकार की पॉलिटिकल ब्रांच से अलग-थलग जीवन जीते हैं। साथ ही जज अक्सर अपने फैसलों के संभावित राजनीतिक परिणामों को लेकर सचेत रहते हैं।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक यह क्वेश्चनायर ऑक्सफोर्ड यूनियन सोसाइटी ने किया था। जिसमें उनसे सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाने से जुड़ा सवाल भी पूछा गया था।

पढ़िए CJI ने किस मुद्दे पर क्या कहा…

राजनीतिक दवाब नहीं, फैसलों के असर की समझ : यदि आप राजनीतिक दबाव को डिटेल में जानना चाहते हैं, तो इसका अर्थ बहुत व्यापक है। अगर जज को किसी फैसले का भविष्य में होने वाला असर पहले से पता हो, तो जाहिर है उन्हें ऐसे मामलों में फैसला लेते समय उसके असर से परिचित होना चाहिए। मेरा मानना ​​है कि यह राजनीतिक दबाव नहीं है। यह कोर्ट की निर्णय के संभावित असर की समझ है, जिसे जज को अपने विचार में जरूर शामिल करना चाहिए।

अदालतों के पेंडिंग केसेस पर: इसकी असली वजह जजों की संख्या की कमी है। भारत में जजों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में दुनिया में सबसे कम है। हमें बस ज्यादा जजों की जरूरत है। हम सभी स्तरों पर ज्यूडिशियरी की ताकत बढ़ाने के लिए सरकार के साथ बातचीत कर रहे हैं। वैकेंसीज को जल्दी भरने के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं।

फैसलों का सामाजिक असर : जज अक्सर अपने फैसलों के सामाजिक प्रभाव के बारे में सोचते हैं। हम जो मामले तय करते हैं, उनका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम फैसलों के सामाजिक व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जागरूक रहें, जिसे हम आखिरकार प्रभावित करने जा रहे हैं।

सेम सेक्स मैरिज से जुड़ा फैसला : जब आप कानून को मानवीय बनाते हैं, तो आप कानून की अवहेलना नहीं कर सकते। स्पेशल मैरिज एक्ट खास उद्देश्य के लिए बनाया गया था और अदालत उस कानून में प्रयुक्त “पुरुष” और “महिला” को “पुरुष” और “पुरुष” या “महिला” और “महिला” के रूप में नहीं पढ़ सकती थी। यदि उसे रद्द कर दिया जाता, तो अंतर-धार्मिक जोड़ों को कंट्रोल करने वाले किसी कानून की स्थिति नहीं होती।

सोशल मीडिया नैरेटिव पर : सोशल मीडिया आज की सच्चाई है। आज हमारी अदालतों में, हर मिनट लाइव-ट्वीट होता है। जज का हर कमेंट सोशल मीडिया पर पब्लिश होता है। यह ऐसी चीज है जिसे हमें रोकने की जरूरत नहीं है और न ही हम इसे रोक सकते हैं। कुछ मौकों पर हम आलोचना का शिकार होते हैं। कभी-कभी ये सही होती है, कभी गलत। लेकिन जजों के रूप में हमारे कंधे इतने चौड़े हैं कि हम हमारे काम की आलोचना को स्वीकार कर सकें।

सुनवाई की लाइव स्ट्रीमिंग पर : आज की अदालतों में जो कुछ भी होता है, उसे केवल फैसले के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। कोर्ट न केवल मुकदमा करने वाले पक्ष बल्कि पूरे समाज के साथ संवाद में शामिल है। इसलिए हमनेअहम संवैधानिक मामलों को लाइव-स्ट्रीम करने का फैसला किया। मेरा मानना है कि हमें न्याय की प्रक्रिया को लोगों के घरों और दिलों तक ले जाना चाहिए। लोगों को यह समझना चाहिए कि कोर्ट में आने वाले सबसे छोटे मुद्दे भी गंभीर विचार को बढ़ा सकते हैं।

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