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बेंगलुरु. कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसीए) की धारा 17ए के तहत राज्यपाल थारवरचंद गहलोत द्वारा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की मैसुरु शहरी विकास प्राधिकरण (MUDA) मामले में जांच करने की मंजूरी को बरकरार रखा. हालांकि, अदालत ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 218 के अनुसार अभियोजन की मंजूरी को खारिज कर दिया. पिछले महीने राज्यपाल ने शिकायतकर्ताओं – प्रदीप कुमार एस पी, टी जे अब्राहम और स्नेहमयी कृष्णा – से मिली शिकायतों के आधार पर 16 अगस्त को सिद्धारमैया के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने की मंजूरी दी थी.

एमयूडीए जमीन आवंटन मामले में आरोप है कि सिद्धारमैया की पत्नी बी एम पार्वती को मैसूर के एक पॉश इलाके विजयनगर में मुआवजे के रूप में जो भूखंड आवंटित किए गए थे, उनकी कीमत एमयूडीएफ द्वारा अधिग्रहीत की गई जमीन की तुलना में काफी अधिक थी. अदालत ने कहा, “राज्यपाल के कथित जल्दबाजी में लिए गए फैसले से आदेश पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है… यह आदेश पीसीए की धारा 17ए के तहत अनुमोदन तक सीमित है, न कि बीएनएसएस की धारा 218 के तहत मंजूरी देने वाला आदेश है.”

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने कहा, “जजों ने इसे राज्यपाल के आदेश की धारा 17ए तक ही सीमित रखा. अदालत ने राज्यपाल द्वारा धारा 218 के तहत जारी आदेश को सिरे से खारिज कर दिया… मुझे विश्वास है कि अगले कुछ दिनों में सच्चाई सामने आ जाएगी और 17ए के तहत जांच रद्द कर दी जाएगी.” अपनी याचिका में मुख्यमंत्री ने कहा था कि बिना समुचित विचार किए, वैधानिक आदेशों तथा मंत्रिपरिषद की सलाह सहित संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए मंजूरी आदेश जारी किया गया. उन्होंने याचिका में कहा था कि मंत्रिपरिषद की सलाह भारत के संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत बाध्यकारी है.

भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 17A क्या है?
संशोधन द्वारा पेश धारा 17A 26 जुलाई, 2018 को प्रभावी हुई. यह सरकारी कर्मचारियों को छोटे आधार पर जांच किए जाने से अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करती है. इस कानून के तहत पुलिस अधिकारी के लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत किसी लोक सेवक द्वारा किए गए कथित अपराध की जांच या जांच करने के लिए सक्षम प्राधिकारी से पूर्व इजाजत लेना जरूरी है. सिद्धारमैया के मामले में, तीनों निजी शिकायतकर्ताओं ने पहले ही राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर ली थी. इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि धारा 17ए के तहत व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य नहीं है.

बीएनएसएस की धारा 218 क्या है?
दूसरी ओर, बीएनएसएस की धारा 218, जिसने सीआरपीसी की धारा 197 की जगह ली है, लोक सेवकों और न्यायाधीशों के अभियोजन से संबंधित है. इसमें प्रावधान है कि केंद्र या राज्य सरकार को 120 दिनों के भीतर किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने की मंजूरी के अनुरोध पर निर्णय लेना चाहिए. यदि वह ऐसा करने में विफल रहती है, तो यह मान लिया जाएगा कि मंजूरी दे दी गई.

Tags: Congress, Karnataka High Court

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